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Monday, January 25, 2016

असहिष्णुता को बढ़ावा ना दें

भारत में असहिष्णुता एक ऐसा विषय बन चुका है, जो कभी-भी जागृत हो जाता है। बीते नवंबर के मास में असहिष्णुता पर जमकर बवाल हुआ था। कलाकार आमिर खान ने असहिष्णुता पर अपनी पत्नी की चिंता व्यक्त की। उसके बाद जो हुआ वह किसी से छिपा नहीं है। इस बार बाॅलीवुड कलाकार करन जौहर ने जयपुर में साहित्य फेस्टिवल के दौरान असहिष्णुता पर सार्वजनिक रूप से अपने विचार रख कर अनजाने में असहिष्णुता के विषय को फिर से जागृत करने का प्रयास किया है। यह उचित नहीं है।

हमारा देश एक परिवार की तरह है। जिसमें नाना प्रकार के भाव और संस्कृति को मानने वाले मनुष्य रहते हैं। परिवार में हम एक दूसरे के विचारों को सम्मान देते हैं और आपस में सहनशीलता का परिचय देते हैं। ठीक उसी भांति  हमें सहिष्णुता के भाव का परिचय अपने देश में भी देना चाहिए। क्योंकि असहिष्णुता पर इस तरह की बयानबाजी देश में अशांति को पैदा करने का ही काम करती है। इससे सहिष्णुता की भावना के खत्म होने का खतरा बढ़ता है। अत देश के ऐसे सम्मानित लोगों को इस तरह की बयानबाजी पर विराम लगाना चाहिए। देश और समाज उनसे उनके व्यवहार और विचारों में परिपक्वता की उम्मीद करता है।

बड़ा दुख होता है कि ऐसे दुख और संताप बढ़ाने वाले बयानों को भी हमारा टीवी मीडिया पूरे दिन टीवी चैनल पर प्रसारित करता है। और साथ ही कुछ चैनल ऐसे विषयों को एक गंभीर मुद्दा बनाने से नहीं चूकते, जोकि गलत है।

ऐसे प्रसारण लोगों को जागरूक करने की बजाय उन्माद और कट्टरता को बढ़ावा ही देते हैं। छोटी-छोटी बातों और अफवाहों पर जाति और धर्म संप्रदाय विशेष के अनुयायी सड़कों पर लाठी, पत्थर और हथियार लेकर निकल पड़ते हैं। ऐसा ही कुछ बंगाल के मालदा में भी हुआ।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ऐसी उग्रता तथा हिंसात्मक अभिव्यक्ति समाज और देश के लिए खतरे की घंटी है। लोग अपने ही भाई बधुंओं के विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी सहन नहीं कर पा रहे हैं। एक दूसरे पर अमर्यादित और अभद्र भाषा की कीचड़ उछालना शुरू कर देते हैं। यह स्वस्थ समाज के लिए बहुत ही गंभीर विषय है।

यदि इसके संभावित कारणों पर गौर करें कि ऐसा क्यों हो रहा है। तो कुछ बातें समझ में आती हैं। लोगों में राष्टीयता की भावना शून्य हो गई है। वे जाति, प्रांत और संप्रदाय में बंट गए हंै। लोग हिन्दु, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, वैष्णव, सिया-सुन्नी इत्यादि में बंट गए हैं। यहां पर संप्रदाय मुख्य हो गए हैं और राष्टीयता गौण हो गई है। ये कौन कर रहा है? क्यों कर रहा है? मैं यहां पर किसी समुदाय या व्यक्ति विशेष का नाम नहीं लेना चाहता हूं। लेकिन ऐसे लोग अपने व्यक्तिगत और राजनीतिक फायदों के लिए देश की जनता की धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहें हैं। एक तरह से ये लोग मानवता के हत्यारे हैं। मनुष्य की धार्मिक भावनाओं को भड़का कर खूनी खेल खेला जा रहा है। ये लोग देश को आर्थिक और सामाजिक आघात पहंुचा रहे हैं।

मैं इन लोगों के बहकावे में आकर इंसान को इंसान ना समझने वाले मनुष्यों से जानना चाहता हूं कि जब आपका कोई भाई बंधु दूसरे देश में जाता है और उससे पूछा जाता है कि आप किस देश के नागरिक हैं, तो वह बताता है कि मैं हिन्दुस्तान का नागरिक हूं। तो उस वक्त उसे वहां पर हिन्दुस्तानी कहा जाता है। तो फिर यहां संप्रदाय प्रधान कैसे हो गए? धर्म सिर्फ इंसान की ईश्वर में आस्था का प्रतीक है। संप्रदाय इंसान की पहचान नहीं हो सकता, इंसान की पहचान उसके व्यवहार और चरित्र से होती है। मनुष्य के इस पतन के लिए देश की राजनीति में कुछ स्वार्थी लोग जिम्मेदार हैं। जो राजनीति करने के बजाय मानवता के हत्यारे बने हुए हैं। अपनी राजनीतिक पिपासा के लिए किसी भी हद तक गिरने के लिए तैयार हैं क्योंकि वे जानते हैं भारत एक लोकतांत्रिक देश है और इन्हें राजनीति में बने रहने के लिए जन समर्थन आवश्यक है। इसलिए इन लोगों ने मनुष्य को संप्रदाय के आधार पर बांटना शुरू कर दिया। जिसके परिणाम दंगों और हत्याओं के रूप में सामने आ रहे हैं। मुझे तो लगता है इस तरह के लोगों को संसद में पहुंचने का अधिकार ही नहीं चाहिए। संसद में दिखने वाले चेहरों को पहले प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। जिससे वह व्यक्तिगत स्वार्थ से उपर उठ कर देश हित में सोचें।

अब सवाल यह उठता है कि ऐसे हालातों और असहिष्णुता को पनपने से कैसे रोका जाए? कैसे संप्रदाय से उपर उठकर आपसी सौहार्द और भाई चारे के साथ साथ राष्टीयता की भावना का विकास किया जाए? जिससे प्राणियों में सदभावना हो। इसके लिए मनुष्य को इन जाति, संप्रदाय और प्रांतवाद के छोटे-छोटे समूहों में वर्गीकृत होना छोड़ कर इंसान ही बने रहने का प्रयास करना होगा। जो मानव समाज के लिए बेहतर है।

मैं मानव समाज के साथ-साथ जनता द्वारा चुने गए जन प्रतिनिधियों से भी अनुरोध करता हूं कि वे सिर्फ राजनीति करें। मनुष्य की धार्मिक भावनाओं की रक्षा करें। हमारे संविधान के मुताबिक धर्म निरपेक्षता का अर्थ है कि सभी देशवासी अपनी धार्मिक भावनाओं के अनुसार कहीं भी पूजा पाठ कर सकते हैं और दूसरे धर्म का आदर करें। सरकार से भी अपेक्षित है कि वह राजनीति धर्म का पालन करे। जिससे प्राणियों में सद्भावना हो। धर्म निरपेक्ष राज्य का दायित्व है कि वह धर्म की चिंता करे। मानवीय गुणों के विकास का जो धर्म है उसकी चिंता करे। जिस धर्म का पक्ष केवल नैतिक और चारित्रिक है वही राज्य को मान्य होना चाहिए। इसका तात्पर्य है कि वैदिक, जैन, बौद्ध, ईसाई और इस्लाम आदि राज्य के धर्म नहीं हो सकते।




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