अजय शर्मा
मैं अपने पाठकों के अनुरोध पर इस बार महिलाओं के अधिकार, उनके मान-सम्मान और सुरक्षा को लेकर देश के प्रमुख कानूनों के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे। हम वैसी घटनाओं और हरकतों को लेकर कानून के प्रावधानों की चर्चा कर रहे हैं, जिन्हें आमतौर पर महिलाएं चुपचाप सहन कर लेती हैं, जबकि इनसे निबटने के लिए कानून और सहायता उपलब्ध हैं। महिलाएं चाहें, तो उनकी मदद ले सकती हैं और शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आर्थिक उत्पीड़न से खुद को बचा सकती हैं। छेड़छाड़, मेले-ठेले में पुरुषों द्वारा जानबूझ कर की जाने वाली धक्का-मुक्की, ईल टिप्पणी और इशारे महिलाओं को आतंकित करने वाली घटनाएं हैं। ऐसी घटनाओं के खिलाफ कानूनी कार्रवाई संभव है। उसी तरह ससुराल में घर के अंदर किये जाने वाले अमानवीय व्यवहार को रोकने की भी कानूनी व्यवस्था है। दहेज उत्पीड़न को लेकर तो कानून और अदालत बेहद संवेदनशील है। इन सब का लाभ लिया जाना चाहिए। विवाह का निबंधन भी जरूरी है। यह पुरुष और महिला दोनों के हित में हैं। इसी गंभीर मुद्दे पर पेष है हमारी खास रिपोर्ट
अनिवार्य विवाह निबंधन
विवाह जीवन और समाज की एक सामान्य और जरूरी संस्कार है। सदियों से चली आ रही इस रस्म को पूरा करने में आम तौर पर किसी कानून को बीच में नहीं लाया जाता है लेकिन इसके लिए भी कानून है, जो विवाह को अपनी (कानूनी) मान्यता देता है। इसमें विवाह के पंजीयन का प्रावधान है। भारत में विवाह आमतौर पर हिंदू विवाह अधिनियम 1955 या विशेष विवाह अधिनियम 1954 में से किसी एक अधिनियम के तहत पंजीकृत किया जा सकता है, लेकिन कोई भी कानून बाल विवाह या कम उम्र में विवाह को मान्यता नहीं देता।
विवाह को कानूनी मान्यता
कानूनी तौर पर विवाह के लिए पुरुष की न्यूनतम आयु 21 वर्ष और महिला की न्यूनतम आयु 18 वर्ष होनी चाहिए। हिंदू विवाह के दोनों पक्षों (वर और वधु) को अविवाहित या तलाकशुदा होने चाहिए। यदि विवाह पहले हो गया है, तो उस शादी की पहली पत्नी या पति जीवित नहीं होने चाहिए, यानी एक पति या एक पत्नी के जीवित रहते तभी दूसरी शादी को कानून मान्यता देता है जिसमें पहली शादी को लेकर तलाक हो चुका हो। इसके अतिरिक्त दोनों पक्षों को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होने चाहिए। विशेष विवाह अधिनियम विवाह अधिकारी द्वारा विवाह संपन्न करने तथा पंजीकरण करने की व्यवस्था करता है।
विवाह प्रमाण-पत्र क्या है
जब किसी विवाह का पंजीयन यानी रजिस्ट्रेशन होता है, तो पंजीकरण का प्रमाण-पत्र दिया जाता है। इसका लाभ यह है कि दोनों पक्षों के विवाह बंधन में बंधने का कानूनी सबूत तैयार होता है। दूसरा कि पासपोर्ट बनवाने, अपना धर्म, गोत्र आदि बदलने के मामले में यह जरूरी दस्तावेज होता है।
विवाह प्रमाण-पत्र कैसे प्राप्त करें
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत विवाह के लिए पक्षों (वर और वधु) को, अपने क्षेत्र के विवाह पंजीयक यानी मैरेज रजिस्ट्रार के पास आवेदन देना होता है। यह पंजीयक उस क्षेत्र का हो सकता है, जहां विवाह संस्कार संपन्न हो रहा है या फिर जिस पंजीयक के अधिकार क्षेत्र में दोनों में से कोई पक्ष विवाह में ठीक पहले लगातार छह माह तक रह रहा हो. दोनों पक्षों को पंजीयक के पास विवाह के एक माह के भीतर अपने माता-पिता या अभिभावकों या अन्य गवाहों के साथ उपस्थित होना होता है, अगर कोई शादी संपन्न हो चुकी है और उस समय उसका पंजीयन नहीं कराया गया, तो वैसे विवाह के पंजीयन के लिए वैसे दंपति को पांच वर्ष तक माफी की पंजीयक और उसके बाद जिला रजिस्ट्रार द्वारा दी जाती है।
विशेष विवाह
विशेष विवाह अधिनियम के तहत पंजीयन के लिए यह जरूरी है कि पंजीयक को विवाह के पंजीयन का आवेदन देने के कम-से-कम 30 दिनों तक कम-से-कम एक पक्ष को उसके क्षेत्रधिकार में रहा होना चाहिए। यदि कोई एक पक्ष दूसरे विवाह अधिकारी के क्षेत्र में रह रहा है, तो नोटिस की प्रति उसके पास भेज दी जाती है। किसी प्रकार की आपत्ति नहीं प्राप्त होने पर सूचना प्रकाशित होने के एक माह के बाद विवाह संपन्न किया जा सकता है। यदि कोई आपत्ति प्राप्त होती है, तो विवाह अधिकारी इसकी जांच करता है। विवाह संपन्न होने के बाद पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) किया जाता है, अगर पहले से शादी हो चुकी है, तो वैसे मामले में 30 दिनों की सार्वजनिक सूचना देने के बाद विशेष विवाह अधिनियम 1954 के अधीन विवाह का पंजीकरण किया जाता है।
महिलाओं को हैं पुरुषों के बराबर अधिकार
महिलाएं अपने अधिकारों का सही इस्तेमाल नहीं कर पातीं, अदालत जाना तो दूर की बात है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि महिलाएं खुद को इतना स्वतंत्र नहीं समझतीं कि इतना बड़ा कदम उठा सकें। जो किसी मजबूरी में (या साहस के चलते) अदालत जा भी पहुँचती हैं, उनके लिए कानून की पेंचीदा गलियों में भटकना आसान नहीं होता। दूसरे, इसमें उन्हें किसी का सहारा या समर्थन भी नहीं मिलता। इसके कारण उन्हें घर से लेकर बाहर तक विरोध के ऐसे बवंडर का सामना करना पड़ता है, जिसका सामना अकेले करना उनके लिए कठिन हो जाता है।
इस नकारात्मक वातावरण का सामना करने के बजाए वे अन्याय सहते रहना बेहतर समझती हैं। कानून होते हुए भी वे उसकी मदद नहीं ले पाती हैं। आमतौर पर लोग आज भी औरतों को दोयम दर्जे का नागरिक ही मानते हैं। कारण चाहे सामाजिक रहे हों या आर्थिक, परिणाम हमारे सामने हैं। आज भी दहेज के लिए हमारे देश में हजारों लड़कियाँ जलाई जा रही हैं। रोज न जाने कितनी ही युवतियों को यौन शोषण की शारीरिक और मानसिक यातना से गुजरना पड़ता है। कितनी ही महिलाएं अपनी संपत्ति से बेदखल होकर दर-दर भटकने को मजबूर हैं।
महिलाएं चाहें षहरी परिवेष की हों या ग्रामीण उनको दैहिक और षारीरिक शोषण का सामना करना पड़ता है। अगर इन अपराधों की सूची तैयार की जाए तो न जाने कितने पन्ने भर जाएंगे। ऐसा नहीं है कि सरकार को इन अत्याचारों की जानकारी नहीं है या फिर इनसे सुरक्षा के लिए कोई कानून नहीं है। जानकारी भी है और कानून भी हैं, मगर महत्वपूर्ण यह है कि इन कानूनों के बारे में आम महिलाएं कितनी जागरूक हैं? वे अपने हक के लिए इन कानूनों का कितना उपयोग कर पाती हैं?
सब यह जानते हैं कि संविधान ने महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि कानून के सामने स्त्री और पुरुष दोनों बराबर हैं। अनुच्छेद 15 के अंतर्गत महिलाओं को भेदभाव के विरुद्ध न्याय का अधिकार प्राप्त है। संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के अलावा भी समय-समय पर महिलाओं की अस्मिता और मान-सम्मान की रक्षा के लिए कानून बनाए गए हैं, मगर क्या महिलाएं अपने प्रति हो रहे अन्याय के खिलाफ न्यायालय के द्वार पर दस्तक दे पाती हैं?
साक्षरता और जागरूकता के अभाव में महिलाएं अपने खिलाफ होने वाले अन्याय के विरुद्ध आवाज ही नहीं उठा पातीं। शायद यही सच भी है। भारत में साक्षर महिलाओं का प्रतिशत 54 के आस पास है और गाँवों में तो यह प्रतिशत और भी कम है। तिस पर जो साक्षर हैं, वे जागरूक भी हों, यह भी कोई जरूरी नहीं है। पुराने संस्कारों में जकड़ी महिलाएं अन्याय और अत्याचार को ही अपनी नियति मान लेती हैं और इसीलिए कानूनी मामलों में कम ही रुचि लेती हैं।
हमारी न्यायिक प्रक्रिया इतनी जटिल, लंबी और खर्चीली है कि आम आदमी इससे बचना चाहता है। अगर कोई महिला हिम्मत करके कानूनी कार्रवाई के लिए आगे आती भी है, तो थोड़े ही दिनों में कानूनी प्रक्रिया की जटिलता के चलते उसका सारा उत्साह खत्म हो जाता है। अगर तह में जाकर देखें तो इस समस्या के कारण हमारे सामाजिक ढाँचे में भी नजर आते हैं। महिलाएँ लोक-लाज के डर से अपने दैहिक शोषण के मामले कम ही दर्ज करवाती हैं। संपत्ति से जुड़े हुए मामलों में महिलाएँ भावनात्मक होकर सोचती हैं।
वे अपने परिवार वालों के खिलाफ जाने से बचना चाहती हैं, इसीलिए अपने अधिकारों के लिए दावा नहीं करतीं। लेकिन एक बात जान लें कि जो अपनी मदद खुद नहीं करता, उसकी मदद ईश्वर भी नहीं करता अर्थात अपने साथ होने वाले अन्याय, अत्याचार से छुटकारा पाने के लिए खुद महिलाओं को ही आगे आना होगा। उन्हें इस अत्याचार, अन्याय के विरुद्ध आवाज उठानी होगी। समाज में सबसे ज्यादा जो मामले सामने आते हैं उनमें से एक है दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा। जिसमें विवाहिता को सबसे प्रताडि़त किया जाता है।
दहेज उत्पीड़न
यह सर्वविदित है कि दहेज एक सामाजिक अभिशाप और कानूनी अपराध है, यह महिला प्रताड़ना और उत्पीड़न का बड़ा कारण है। भारतीय दंड संहिता की धारा 304(बी) तथा दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 के तहत दहेज लेना और देना दोनों अपराध है। ऐसे अपराध की सजा कम-से-कम पांच वर्ष कैद या कम-से-कम पंद्रह हजार रुपये जुर्माना है। दहेज की मांग करने पर छह माह की कैद की सजा और दस हजार रुपये तक का जुर्माना किया जाता है। साथ ही, दहेज के नाम पर किसी भी प्रकार के मानसिक, शारीरिक, मौखिक तथा आर्थिक उत्पीड़न को अपराध के दायरे में रखा गया है.
दहेज हत्या से जुड़े कानूनी प्रावधान
दहेज हत्या को लेकर भारतीय दंड संहिता यानी आइपीसी में स्पष्ट प्रावधान है. इसके लिए संहिता की धारा 304(बी), 302, 306 एवं 498-ए है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 304(बी)
भारतीय दंड संहिता की धारा 304(बी) दहेज हत्या के मामलों में सजा के लिए लागू की जाती है. दहेज हत्या का अर्थ है औरत की जलने या किसी शारीरिक चोट के कारण हुई मौत या शादी के सात साल के अंदर किन्हीं संदेहास्पद कारण से हुई उसकी मृत्यु, दहेज हत्या की सजा सात साल कैद है। इस जुर्म के अभियुक्त को जमानत नहीं मिलती है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 302
संहिता की धारा 302 में दहेज हत्या के मामले में सजा का प्रावधान है। इसके तहत किसी औरत की दहेज हत्या के अभियुक्त का अदालत में अपराध सिद्ध होने पर उसे उम्र कैद या फांसी हो सकती है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 306
अगर ससुराल वाले किसी औरत को दहेज के लिए मानसिक या भावनात्मक रूप से हिंसा का शिकार बनाते हैं और इस कारण वह आत्महत्या कर लेती है, तो वहां भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के तहत उसे सजा मिलती है। इसके तहत दोष साबित होने पर अभियुक्त को महिला द्वारा आत्महत्या के लिए मजबूर करने के अपराध के लिए जुर्माना और 10 साल तक की सजा सुनायी जा सकती है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए
पति या रिश्तेदारों द्वारा दहेज के लालच में महिला के साथ क्रूरता और हिंसा का व्यवहार करने पर संहिता की धारा-498ए के तहत कठोर दंड का प्रावधान है। यहां क्रूरता के मायने हैं- औरत को आत्महत्या के लिए मजबूर करना, उसकी जिंदगी के लिए खतरा पैदा करना व दहेज के लिए सताना व हिंसा।
ये हैं कुछ कानूनी सहायता जिसके सहारे विवाहिता अपने हक और सम्मान की लड़ाई लड़ सकती है। साथ ही समाज को भी महिलाओं के प्रति अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा। वे भी एक इंसान हैं और एक इंसान के साथ जैसा व्यवहार होना चाहिए वैसा ही उनके साथ भी किया जाए तो फिर शायद वे न्यायपूर्ण और सम्मानजनक जीवन जी सकेंगी।
क्या कहती है गाजियाबाद महानगर अध्यक्ष रितु खन्ना
सपा महानगर अध्यक्ष कहती हैं उनके पास प्रतिदिन 2-5 महिलाएं अपनी शिकायतें लेकर आती हैं कि पति मारपीट करता है। बहुत शराब पीता है। दहेज की मांग कर रहा है। कभी कभी भी तो रिश्तेदारों या पड़ोसियों द्वारा प्रताडि़त करने के मामले भी आते है। ऐसी महिलाओं के मामले आएं कि आॅफिस में बाॅस ने सैलरी नहीं दी है और वह चक्कर कटवा रहा है। या फिर सैलरी के नाम पर वह कुछ और चाहता है। तो हमने ऐसे मामलों में सहयोग किया है। रितु कहती हैं कि महिला या युवती पुलिस से सहयोग लेने से कतराती है क्योंकि वह पुलिस से घबराती हैं साथ ही बदनामी से भी बचना चाहती है।
गाजियाबाद महिला थाना की प्रभारी
अंजू तेवतिया बताती हैं कि हमारे यहां पति पत्नी के आपसी झगड़ों के मामले ज्यादा आते हैं। जिनमें लव अफेयर, मोबाइल और फेसबुक को लेकर ज्यादा मामले हैं। वहीं प्रेम विवाह वाले भी पीछे नहीं हैं। ये लोग एक दूसरे पर आरोप लगाने में सारी सीमाएं तक लांघ जाते हैं। उनके मुताबिक प्रतिदिन लगभग 10 मामले यहां आते हैं। यहां यौन प्रताड़ना, छेड़छाड़ और वर्किंग वूमेन के मामले नहीं आते हैं। और हां आजकल महिलाएं अपने पतियों से अपने खर्चें के लिए पैसों की डिमांड कर रही है। जो यह बताती है कि वह हर वक्त छोटी-छोटी जरुरतों के लिए अपने पतियों के सामने हाथ नहीं फैलानी चाहती है।
पीडि़ता का बयान
एक पीडि़ता ने अपना नाम बताने की शर्त पर बताया कि पुलिस मेरे मामले में लड़के वालों का पक्ष लिया। साथ ही समझौता करने के लिए बहुत दबाव बनाया। विवेचना अधिकारी ने तो सारी हदें ही पार कर दीं। लेकिन मैंने भी हिम्मत नहीं हारी और मेरे परिवार ने जो प्रताड़ना झेली है। उसे बयान कर पाना मुश्किल है। पता नहीं ये केस कितना लंबा चलेगा। कब जाकर मुझे न्याय मिलेगा। भगवान के घर देर है पर अंधेर नहीं।
मैं अपने पाठकों के अनुरोध पर इस बार महिलाओं के अधिकार, उनके मान-सम्मान और सुरक्षा को लेकर देश के प्रमुख कानूनों के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे। हम वैसी घटनाओं और हरकतों को लेकर कानून के प्रावधानों की चर्चा कर रहे हैं, जिन्हें आमतौर पर महिलाएं चुपचाप सहन कर लेती हैं, जबकि इनसे निबटने के लिए कानून और सहायता उपलब्ध हैं। महिलाएं चाहें, तो उनकी मदद ले सकती हैं और शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आर्थिक उत्पीड़न से खुद को बचा सकती हैं। छेड़छाड़, मेले-ठेले में पुरुषों द्वारा जानबूझ कर की जाने वाली धक्का-मुक्की, ईल टिप्पणी और इशारे महिलाओं को आतंकित करने वाली घटनाएं हैं। ऐसी घटनाओं के खिलाफ कानूनी कार्रवाई संभव है। उसी तरह ससुराल में घर के अंदर किये जाने वाले अमानवीय व्यवहार को रोकने की भी कानूनी व्यवस्था है। दहेज उत्पीड़न को लेकर तो कानून और अदालत बेहद संवेदनशील है। इन सब का लाभ लिया जाना चाहिए। विवाह का निबंधन भी जरूरी है। यह पुरुष और महिला दोनों के हित में हैं। इसी गंभीर मुद्दे पर पेष है हमारी खास रिपोर्ट
अनिवार्य विवाह निबंधन
विवाह जीवन और समाज की एक सामान्य और जरूरी संस्कार है। सदियों से चली आ रही इस रस्म को पूरा करने में आम तौर पर किसी कानून को बीच में नहीं लाया जाता है लेकिन इसके लिए भी कानून है, जो विवाह को अपनी (कानूनी) मान्यता देता है। इसमें विवाह के पंजीयन का प्रावधान है। भारत में विवाह आमतौर पर हिंदू विवाह अधिनियम 1955 या विशेष विवाह अधिनियम 1954 में से किसी एक अधिनियम के तहत पंजीकृत किया जा सकता है, लेकिन कोई भी कानून बाल विवाह या कम उम्र में विवाह को मान्यता नहीं देता।
विवाह को कानूनी मान्यता
कानूनी तौर पर विवाह के लिए पुरुष की न्यूनतम आयु 21 वर्ष और महिला की न्यूनतम आयु 18 वर्ष होनी चाहिए। हिंदू विवाह के दोनों पक्षों (वर और वधु) को अविवाहित या तलाकशुदा होने चाहिए। यदि विवाह पहले हो गया है, तो उस शादी की पहली पत्नी या पति जीवित नहीं होने चाहिए, यानी एक पति या एक पत्नी के जीवित रहते तभी दूसरी शादी को कानून मान्यता देता है जिसमें पहली शादी को लेकर तलाक हो चुका हो। इसके अतिरिक्त दोनों पक्षों को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होने चाहिए। विशेष विवाह अधिनियम विवाह अधिकारी द्वारा विवाह संपन्न करने तथा पंजीकरण करने की व्यवस्था करता है।
विवाह प्रमाण-पत्र क्या है
जब किसी विवाह का पंजीयन यानी रजिस्ट्रेशन होता है, तो पंजीकरण का प्रमाण-पत्र दिया जाता है। इसका लाभ यह है कि दोनों पक्षों के विवाह बंधन में बंधने का कानूनी सबूत तैयार होता है। दूसरा कि पासपोर्ट बनवाने, अपना धर्म, गोत्र आदि बदलने के मामले में यह जरूरी दस्तावेज होता है।
विवाह प्रमाण-पत्र कैसे प्राप्त करें
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत विवाह के लिए पक्षों (वर और वधु) को, अपने क्षेत्र के विवाह पंजीयक यानी मैरेज रजिस्ट्रार के पास आवेदन देना होता है। यह पंजीयक उस क्षेत्र का हो सकता है, जहां विवाह संस्कार संपन्न हो रहा है या फिर जिस पंजीयक के अधिकार क्षेत्र में दोनों में से कोई पक्ष विवाह में ठीक पहले लगातार छह माह तक रह रहा हो. दोनों पक्षों को पंजीयक के पास विवाह के एक माह के भीतर अपने माता-पिता या अभिभावकों या अन्य गवाहों के साथ उपस्थित होना होता है, अगर कोई शादी संपन्न हो चुकी है और उस समय उसका पंजीयन नहीं कराया गया, तो वैसे विवाह के पंजीयन के लिए वैसे दंपति को पांच वर्ष तक माफी की पंजीयक और उसके बाद जिला रजिस्ट्रार द्वारा दी जाती है।
विशेष विवाह
विशेष विवाह अधिनियम के तहत पंजीयन के लिए यह जरूरी है कि पंजीयक को विवाह के पंजीयन का आवेदन देने के कम-से-कम 30 दिनों तक कम-से-कम एक पक्ष को उसके क्षेत्रधिकार में रहा होना चाहिए। यदि कोई एक पक्ष दूसरे विवाह अधिकारी के क्षेत्र में रह रहा है, तो नोटिस की प्रति उसके पास भेज दी जाती है। किसी प्रकार की आपत्ति नहीं प्राप्त होने पर सूचना प्रकाशित होने के एक माह के बाद विवाह संपन्न किया जा सकता है। यदि कोई आपत्ति प्राप्त होती है, तो विवाह अधिकारी इसकी जांच करता है। विवाह संपन्न होने के बाद पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) किया जाता है, अगर पहले से शादी हो चुकी है, तो वैसे मामले में 30 दिनों की सार्वजनिक सूचना देने के बाद विशेष विवाह अधिनियम 1954 के अधीन विवाह का पंजीकरण किया जाता है।
महिलाओं को हैं पुरुषों के बराबर अधिकार
महिलाएं अपने अधिकारों का सही इस्तेमाल नहीं कर पातीं, अदालत जाना तो दूर की बात है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि महिलाएं खुद को इतना स्वतंत्र नहीं समझतीं कि इतना बड़ा कदम उठा सकें। जो किसी मजबूरी में (या साहस के चलते) अदालत जा भी पहुँचती हैं, उनके लिए कानून की पेंचीदा गलियों में भटकना आसान नहीं होता। दूसरे, इसमें उन्हें किसी का सहारा या समर्थन भी नहीं मिलता। इसके कारण उन्हें घर से लेकर बाहर तक विरोध के ऐसे बवंडर का सामना करना पड़ता है, जिसका सामना अकेले करना उनके लिए कठिन हो जाता है।
इस नकारात्मक वातावरण का सामना करने के बजाए वे अन्याय सहते रहना बेहतर समझती हैं। कानून होते हुए भी वे उसकी मदद नहीं ले पाती हैं। आमतौर पर लोग आज भी औरतों को दोयम दर्जे का नागरिक ही मानते हैं। कारण चाहे सामाजिक रहे हों या आर्थिक, परिणाम हमारे सामने हैं। आज भी दहेज के लिए हमारे देश में हजारों लड़कियाँ जलाई जा रही हैं। रोज न जाने कितनी ही युवतियों को यौन शोषण की शारीरिक और मानसिक यातना से गुजरना पड़ता है। कितनी ही महिलाएं अपनी संपत्ति से बेदखल होकर दर-दर भटकने को मजबूर हैं।
महिलाएं चाहें षहरी परिवेष की हों या ग्रामीण उनको दैहिक और षारीरिक शोषण का सामना करना पड़ता है। अगर इन अपराधों की सूची तैयार की जाए तो न जाने कितने पन्ने भर जाएंगे। ऐसा नहीं है कि सरकार को इन अत्याचारों की जानकारी नहीं है या फिर इनसे सुरक्षा के लिए कोई कानून नहीं है। जानकारी भी है और कानून भी हैं, मगर महत्वपूर्ण यह है कि इन कानूनों के बारे में आम महिलाएं कितनी जागरूक हैं? वे अपने हक के लिए इन कानूनों का कितना उपयोग कर पाती हैं?
सब यह जानते हैं कि संविधान ने महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि कानून के सामने स्त्री और पुरुष दोनों बराबर हैं। अनुच्छेद 15 के अंतर्गत महिलाओं को भेदभाव के विरुद्ध न्याय का अधिकार प्राप्त है। संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के अलावा भी समय-समय पर महिलाओं की अस्मिता और मान-सम्मान की रक्षा के लिए कानून बनाए गए हैं, मगर क्या महिलाएं अपने प्रति हो रहे अन्याय के खिलाफ न्यायालय के द्वार पर दस्तक दे पाती हैं?
साक्षरता और जागरूकता के अभाव में महिलाएं अपने खिलाफ होने वाले अन्याय के विरुद्ध आवाज ही नहीं उठा पातीं। शायद यही सच भी है। भारत में साक्षर महिलाओं का प्रतिशत 54 के आस पास है और गाँवों में तो यह प्रतिशत और भी कम है। तिस पर जो साक्षर हैं, वे जागरूक भी हों, यह भी कोई जरूरी नहीं है। पुराने संस्कारों में जकड़ी महिलाएं अन्याय और अत्याचार को ही अपनी नियति मान लेती हैं और इसीलिए कानूनी मामलों में कम ही रुचि लेती हैं।
हमारी न्यायिक प्रक्रिया इतनी जटिल, लंबी और खर्चीली है कि आम आदमी इससे बचना चाहता है। अगर कोई महिला हिम्मत करके कानूनी कार्रवाई के लिए आगे आती भी है, तो थोड़े ही दिनों में कानूनी प्रक्रिया की जटिलता के चलते उसका सारा उत्साह खत्म हो जाता है। अगर तह में जाकर देखें तो इस समस्या के कारण हमारे सामाजिक ढाँचे में भी नजर आते हैं। महिलाएँ लोक-लाज के डर से अपने दैहिक शोषण के मामले कम ही दर्ज करवाती हैं। संपत्ति से जुड़े हुए मामलों में महिलाएँ भावनात्मक होकर सोचती हैं।
वे अपने परिवार वालों के खिलाफ जाने से बचना चाहती हैं, इसीलिए अपने अधिकारों के लिए दावा नहीं करतीं। लेकिन एक बात जान लें कि जो अपनी मदद खुद नहीं करता, उसकी मदद ईश्वर भी नहीं करता अर्थात अपने साथ होने वाले अन्याय, अत्याचार से छुटकारा पाने के लिए खुद महिलाओं को ही आगे आना होगा। उन्हें इस अत्याचार, अन्याय के विरुद्ध आवाज उठानी होगी। समाज में सबसे ज्यादा जो मामले सामने आते हैं उनमें से एक है दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा। जिसमें विवाहिता को सबसे प्रताडि़त किया जाता है।
दहेज उत्पीड़न
यह सर्वविदित है कि दहेज एक सामाजिक अभिशाप और कानूनी अपराध है, यह महिला प्रताड़ना और उत्पीड़न का बड़ा कारण है। भारतीय दंड संहिता की धारा 304(बी) तथा दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 के तहत दहेज लेना और देना दोनों अपराध है। ऐसे अपराध की सजा कम-से-कम पांच वर्ष कैद या कम-से-कम पंद्रह हजार रुपये जुर्माना है। दहेज की मांग करने पर छह माह की कैद की सजा और दस हजार रुपये तक का जुर्माना किया जाता है। साथ ही, दहेज के नाम पर किसी भी प्रकार के मानसिक, शारीरिक, मौखिक तथा आर्थिक उत्पीड़न को अपराध के दायरे में रखा गया है.
दहेज हत्या से जुड़े कानूनी प्रावधान
दहेज हत्या को लेकर भारतीय दंड संहिता यानी आइपीसी में स्पष्ट प्रावधान है. इसके लिए संहिता की धारा 304(बी), 302, 306 एवं 498-ए है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 304(बी)
भारतीय दंड संहिता की धारा 304(बी) दहेज हत्या के मामलों में सजा के लिए लागू की जाती है. दहेज हत्या का अर्थ है औरत की जलने या किसी शारीरिक चोट के कारण हुई मौत या शादी के सात साल के अंदर किन्हीं संदेहास्पद कारण से हुई उसकी मृत्यु, दहेज हत्या की सजा सात साल कैद है। इस जुर्म के अभियुक्त को जमानत नहीं मिलती है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 302
संहिता की धारा 302 में दहेज हत्या के मामले में सजा का प्रावधान है। इसके तहत किसी औरत की दहेज हत्या के अभियुक्त का अदालत में अपराध सिद्ध होने पर उसे उम्र कैद या फांसी हो सकती है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 306
अगर ससुराल वाले किसी औरत को दहेज के लिए मानसिक या भावनात्मक रूप से हिंसा का शिकार बनाते हैं और इस कारण वह आत्महत्या कर लेती है, तो वहां भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के तहत उसे सजा मिलती है। इसके तहत दोष साबित होने पर अभियुक्त को महिला द्वारा आत्महत्या के लिए मजबूर करने के अपराध के लिए जुर्माना और 10 साल तक की सजा सुनायी जा सकती है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए
पति या रिश्तेदारों द्वारा दहेज के लालच में महिला के साथ क्रूरता और हिंसा का व्यवहार करने पर संहिता की धारा-498ए के तहत कठोर दंड का प्रावधान है। यहां क्रूरता के मायने हैं- औरत को आत्महत्या के लिए मजबूर करना, उसकी जिंदगी के लिए खतरा पैदा करना व दहेज के लिए सताना व हिंसा।
ये हैं कुछ कानूनी सहायता जिसके सहारे विवाहिता अपने हक और सम्मान की लड़ाई लड़ सकती है। साथ ही समाज को भी महिलाओं के प्रति अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा। वे भी एक इंसान हैं और एक इंसान के साथ जैसा व्यवहार होना चाहिए वैसा ही उनके साथ भी किया जाए तो फिर शायद वे न्यायपूर्ण और सम्मानजनक जीवन जी सकेंगी।
क्या कहती है गाजियाबाद महानगर अध्यक्ष रितु खन्ना
सपा महानगर अध्यक्ष कहती हैं उनके पास प्रतिदिन 2-5 महिलाएं अपनी शिकायतें लेकर आती हैं कि पति मारपीट करता है। बहुत शराब पीता है। दहेज की मांग कर रहा है। कभी कभी भी तो रिश्तेदारों या पड़ोसियों द्वारा प्रताडि़त करने के मामले भी आते है। ऐसी महिलाओं के मामले आएं कि आॅफिस में बाॅस ने सैलरी नहीं दी है और वह चक्कर कटवा रहा है। या फिर सैलरी के नाम पर वह कुछ और चाहता है। तो हमने ऐसे मामलों में सहयोग किया है। रितु कहती हैं कि महिला या युवती पुलिस से सहयोग लेने से कतराती है क्योंकि वह पुलिस से घबराती हैं साथ ही बदनामी से भी बचना चाहती है।
गाजियाबाद महिला थाना की प्रभारी
अंजू तेवतिया बताती हैं कि हमारे यहां पति पत्नी के आपसी झगड़ों के मामले ज्यादा आते हैं। जिनमें लव अफेयर, मोबाइल और फेसबुक को लेकर ज्यादा मामले हैं। वहीं प्रेम विवाह वाले भी पीछे नहीं हैं। ये लोग एक दूसरे पर आरोप लगाने में सारी सीमाएं तक लांघ जाते हैं। उनके मुताबिक प्रतिदिन लगभग 10 मामले यहां आते हैं। यहां यौन प्रताड़ना, छेड़छाड़ और वर्किंग वूमेन के मामले नहीं आते हैं। और हां आजकल महिलाएं अपने पतियों से अपने खर्चें के लिए पैसों की डिमांड कर रही है। जो यह बताती है कि वह हर वक्त छोटी-छोटी जरुरतों के लिए अपने पतियों के सामने हाथ नहीं फैलानी चाहती है।
पीडि़ता का बयान
एक पीडि़ता ने अपना नाम बताने की शर्त पर बताया कि पुलिस मेरे मामले में लड़के वालों का पक्ष लिया। साथ ही समझौता करने के लिए बहुत दबाव बनाया। विवेचना अधिकारी ने तो सारी हदें ही पार कर दीं। लेकिन मैंने भी हिम्मत नहीं हारी और मेरे परिवार ने जो प्रताड़ना झेली है। उसे बयान कर पाना मुश्किल है। पता नहीं ये केस कितना लंबा चलेगा। कब जाकर मुझे न्याय मिलेगा। भगवान के घर देर है पर अंधेर नहीं।
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