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Monday, February 1, 2016

रोहित वेमुला------ दलित समाज ?

"हमारी भावनाएं दोयम दर्जे की हो गई हैं। हमारा प्रेम बनावटी है। हमारी मान्यताएं झूठी हैं। हमारी मौलिकता वैध है सिर्फ कृत्रिम कला के जरिए। एक वोट तक, एक आदमी महज एक आंकड़ा बन गया है।"

ये है रोहित वेमुला के लिखे सुसाइड नोट का कुछ अंश। रोहित न कहते-कहते बहुत कुछ कह गया। रोहित ज़िंदा रहते हुए जो ख़त में लिख गया शायद मरने के बाद वह सच हो रहा है। रोहित की आत्महत्या ने एक नया मोड़ ले लिया है। उसकी जाति को लेकर सवाल उठने लगा है, वह किस जाति का था? दलित था भी या नहीं? अगर दलित था तो एडमिशन दलित कोटे से क्यों नहीं लिया? रोहित की मौत के बाद दलित को लेकर सब गंभीर दिखाई दे रहे हैं। "गंभीर" आप समझ गए होंगे मैं क्या कह रहा हूं? ऐसे व्यवहार किया जा रहा है कि जैसे "दलित" शब्द कहीं ऊपर से टपक गया है और जबरन हमारे ऊपर थोप दिया गया है। लेकिन हक़ीक़त कुछ और है।

समाज के इस घड़ियाली आंसू के पीछे कहीं न कहीं घटिया मानसिकता छिपी हुई है। यह वही समाज है जो दलित को अपने समाज का हिस्सा नहीं मानता है। दलित के लिए आंसू तो बहाते हैं, लेकिन उसे भी रोने के लिए मजबूर कर देते हैं। हमारे राजनेता दलित के दर्द को समझते तो हैं लेकिन इस समझ और नासमझी के बीच एक सोची-समझी वोट बैंक की राजनीति छिपी हुई है।

रोहित ने अपने ख़त में यही लिखा है कि उसका जन्म एक घातक हादसा था, वह अपने बचपन के अकेलपन से कभी बाहर नहीं निकल सका। अपने छोटेपन से निकल नहीं सका। इसका एहसास तो इसी समाज ने ही दिया है? अगर यह एहसास नहीं होता तो शायद रोहित आज जिन्दा होता।

रोहित क़ी मौत के बाद राजनेताओं को एक मौका मिल गया। हमेशा क़ी तरह एक दूसरे के ऊपर आरोप-प्रत्यारोप के बीच एक घृणा की राजनीति सामने आ रही है। रोहित ने तो अपने ख़त में यही सब लिखा है, कैसे हम सब बनावटी बन गए हैं, कैसे हमारी भावनाएं दोयम दर्जे की हो गई हैं। वोट के लिए क्या-क्या नहीं करना चाहते हैं। रोहित के नाम पर कैसे राजनेता एक दूसरे पर हमला कर रहे हैं। एक तरह तो प्रधानमंत्री भी रोहित की आत्महत्या लेकर काफी चिंतित नज़र आते हैं तो दूसरी तरफ स्मृति ईरानी गलत तथ्य पेश करते हुए अपना पल्ला झाड़ लेती हैं।

अरविंद केजरीवाल हैदराबाद तो पहुंच जाते हैं लेकिन वहां भी उन्हें नरेंद्र मोदी ही दिखाई देते हैं। बोलते-बोलते नरेंद्र मोदी पर हमला कर बैठते हैं। दिल्ली की राजनीति को हैदराबाद तक पहुंचा देते हैं।

जरा सोचिए उन राजनेताओं के बारे में जो अपने आपको दलित समाज का ठेकेदार मानते हैं। चुनाव के दौरान अपने समाज के सामने एक ऐसे रूप पेश होते हैं जैसे समाज उन के लिए नहीं बल्कि वह दलित समाज के लिए बने हैं। लेकिन कितने दलित नेता हैं जो हैदराबाद यूनिवर्सिटी पहुंचे हैं। ज्यादातर वही नेता पहुंचे होंगे जो बीजेपी के विरोधी नेता हैं।

लोकसभा में बीजेपी के कई दलित सांसद हैं। क्या आपने देखा है इन सांसदों को हैदराबाद पहुंचते हुए या खुलकर इस मुद्दे पर बात करते हुए। कुछ दिन पहले इस घटना को लेकर मैं बीजेपी के कुछ सांसदों से बात कर रहा था, इस मुद्दे पर उनकी राय लेने की कोशिश कर रहा था। ज्यादातर सांसद रोहित की आत्महत्या से परेशान तो थे, लेकिन खुलकर बात करने के लिए तैयार नहीं थे।

कांग्रेस भी राजनीति करने में पीछे नहीं है। कांग्रेस ऐसा व्यवहार कर रही है कि जैसे कांग्रेस के शासनकाल में कभी दलितों के ऊपर अत्याचार नहीं हुआ। हरियाणा के भगाना गांव के कुछ दलित लोगों के ऊपर वहां की ऊंची जाति के लोगों द्वारा अत्याचार करने की बात सामने आई थी। कई साल तक ये लोग जंतर-मंतर पर धरणा देते रहे, लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। उस वक़्त हरियाणा में कांग्रेस की सरकार थी और केंद्र में कांग्रेस सत्ता में भी थी। लेकिन सत्ता और सरकार दोनों ही चुप थी।

रोहित की आत्महत्या के बाद छात्र राजनीति का असली चेहरा भी सामने आ रहा है। मुम्बई से लेकर दिल्ली तक छात्र संगठन प्रोटेस्ट कर रहे हैं। लेकिन सच यह है कि छात्र संगठन रोहित के नाम पर अपनी राजनीति को चमकाने में लगे हुए हैं। रोहित के मुद्दे को लेकर ABVP के दफ्तर पर हमला हो जाता है, इस हमले को राजनैतिक रूप भी दिया जाता है। लेकिन इस हमले का ज़िम्मेदारी कोई नहीं लेता है।

दिल्ली यूनिवर्सिटी के सामने बैठे छात्रनेता अपने हाथ में रोहित की तस्वीर तो लेकर बैठे हैं लेकिन इस तस्वीर के नीचे अपने संगठन का नाम लिखना नहीं भूले। प्रोटेस्ट के दौरान एक-दूसरे के खिलाफ नारेबाजी हो रही है। जिंदाबाद और मुर्दाबाद के नारे दूर-दूर तक सुनाई दे रहे हैं। इस छात्र राजनीति की बात तो रोहित ने ही की थी। कैसे छात्र-राजनीति यूनिवर्सिटी के माहौल को खराब कर रही है। जो छात्र नेता जब रोहित जिन्दा था उसके साथ खड़े नहीं हुए आज मरने के बाद उसके नाम पर राजनीति कर रहे हैं।

रोहित इस दुनिया को समझ नहीं पाया, प्यार को समझ नहीं पाया। लेकिन क्या हम सब रोहित को समझ पाए उसके ख़त में लिखे हुए दर्द को समझ पाए। मुझे नहीं लगता अगर समझ गए होते तो नासमझ की तरह बात करते, रोहित को लेकर कम से कम राजनीति नहीं 

Friday, January 29, 2016

संप्रदायिकता बढ़ाने वाले बयानों से परहेज करें राजनेता

सत्ता की अंधी चाह में सांप्रदायिकता को हवा ना दें राजनेता


मोहन भागवत से एक छात्र ने सभा में सार्वजनिक रूप से राम मंदिर निर्माण पर एक सवाल पूछ लिया कि क्या राम मंदिर के भव्य निर्माण से गरीब की थाली में रोटी आ जाएगी? इस प्रश्न ने भगवा ब्रिगेड को आक्रोशित कर दिया। मोहन भागवत ने जो जवाब दिया उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि ऐसा प्रश्न इस देश के एक युवा ने भरी सभा के दौरान पूछा। यह अपने आप में एक गंभीर प्रश्न है। जो सोचने के लिए मजबूर करता है कि इस देश का युवा क्या सोचता है।

लेकिन इसके इतर इस प्रश्न के बाद विरोधियों को आलोचना का मौका मिला और टीवी चैनल को टीआरपी का मुद्दा। हिन्दुस्तान का एक राष्टीय न्यूज चैनल इस विषय पर प्राइम टाइम में एक बौद्धिक बहस प्रसारित कर रहा था। जो देखने में तो दिलचस्प लग रही थी। लेकिन जब उसका विश्लेषण किया तो समझ में आया, टीवी चैनल तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की हवा बनाने की कोशिश कर रहा है। यह यूपी विधान सभा चुनाव 2017 से पहले की तैयारी है।

यदि यूपी में इस वक्त मौजूदा हालात पर गौर करें तो सपा के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने सार्वजनिक रूप से दो ऐसे बयान दिए हैं। जिनकी यहां पर चर्चा करना आवश्यक है। सबसे पहले उन्होंने कहा कि उन्हें बाबरी और राम मंदिर हादसे में कार सेवकों पर गोली चलाने के आदेश का दुख है। लेकिन कानून की रक्षा के लिए मजबूर थे। उसके बाद उनका दूसरा बयान आता है कि दादरी कांड में अखलाक की निर्मम हत्या और उसके बाद सांप्रदायिक दंगे में बीजेपी के तीन लोगों के नाम हैं। जिसके उनके पास पुख्ता सबूत हैं। यदि प्रधानमंत्री कहेंगे तो मैं उनके नाम बता दूंगा। ये दो ऐसे बयान हैं जो वोटों के लिए सांप्रादायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश के रूप में देखे जा सकते हैं। ऐसे बयान असहिष्णुता को बढ़ावा देने का काम ही करेंगें।

वहीं यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती यूपी में दलितों के साथ अन्याय का मुद्दा उठाते हुए मौजूदा सरकार को घेर रही हैं। मायावती दलित वोट बैंक के लिए लोगों में आपसी वैमनस्य को हवा देने का काम कर रही हैं।

मुझ से अक्सर लोग पूछते हैं कि मुनि जी क्या राजनेताओं या जनप्रतिनिधियांे को ऐसे बयान देने चाहिए। जिससे मनुष्यों में आपसी सदभाव का माहौल बिगड़ने की पूरी संभावना हो। मुझे बड़ा दुख होता है यह सोचकर कि सत्ता में बने रहने के लिए या सत्ता में आने के लिए ये लोग किस स्तर की राजनीति कर रहे हैं। राजनीति में अमर्यादित व्यवहार और आचरण स्वस्थ लोकतंत्र के लिए घातक बीमारी के समान है। राजनैतिक प्रतिस्पर्धा में किसी भी हद को लांघ जाना शोभनीय नहीं हैं।

मुझ से लोगों ने कहा कि यदि मुलायम सिंह यादव के पास दादरी कांड के दोषियो के नाम हैं तो वे कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं करवाते हैं। वे उन दोषियों के नामों को क्यों पाल रहे हैं? सीधे-सीधे तौर पर समझा जा सकता है कि मुलायम देश के प्रधानमंत्री को ब्लैकमेल कर रहे हैं और यूपी की जनता के साथ-साथ पूरे देश को असहिष्णुता की तरफ धकेलना चाहते हैं।

मैं देश के जिम्मेदार राजनेताओं से अपील करता हूं कि वे सत्ता की खातिर ऐसे बयानों से बचें जो देश की छवि को वैश्विक रूप से धूमिल करें। रही बात उस छात्र की जिसने गरीब के लिए रोटी मिलने का प्रश्न उठाया है। धर्म और रोटी दोनों ही जीवन के लिए आवश्यक है। व्यक्ति चाहे किसी भी धर्म को मानने वाला हो उसका आदर होना चाहिए। धर्म आत्मा का पोषण है और रोटी यानि कि आहार शरीर का पोषण है। अत दोनों ही जीवन के लिए अति आवश्यक है।
टीवी चैनल ऐसे मुद्दों पर बुद्धिजीवियों को बैठाकर खुली बहस तो कराता है। लेकिन ये बहस सार्थक ना होकर किसी मनोरंजक टीवी प्रोग्राम की फूहड़ पटकथा से ज्यादा कुछ नहीं प्रतीत होती है। ये तथाकथित बुद्धिजीवी अपने-अपने अहं की तुष्टि को पूरा करते ज्यादा नजर आते हैं। दर्शक बाद में इन महानुभावों को गाॅसिप का विषय बना लेते हैं। इन बुद्धिजीवियों का जमीनीस्तर पर कोई आधार ना होने के कारण इन बहसों का जनमानस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। तो ऐसी बौद्धिक बहस भी निरर्थक हैं।

Monday, January 25, 2016

असहिष्णुता को बढ़ावा ना दें

भारत में असहिष्णुता एक ऐसा विषय बन चुका है, जो कभी-भी जागृत हो जाता है। बीते नवंबर के मास में असहिष्णुता पर जमकर बवाल हुआ था। कलाकार आमिर खान ने असहिष्णुता पर अपनी पत्नी की चिंता व्यक्त की। उसके बाद जो हुआ वह किसी से छिपा नहीं है। इस बार बाॅलीवुड कलाकार करन जौहर ने जयपुर में साहित्य फेस्टिवल के दौरान असहिष्णुता पर सार्वजनिक रूप से अपने विचार रख कर अनजाने में असहिष्णुता के विषय को फिर से जागृत करने का प्रयास किया है। यह उचित नहीं है।

हमारा देश एक परिवार की तरह है। जिसमें नाना प्रकार के भाव और संस्कृति को मानने वाले मनुष्य रहते हैं। परिवार में हम एक दूसरे के विचारों को सम्मान देते हैं और आपस में सहनशीलता का परिचय देते हैं। ठीक उसी भांति  हमें सहिष्णुता के भाव का परिचय अपने देश में भी देना चाहिए। क्योंकि असहिष्णुता पर इस तरह की बयानबाजी देश में अशांति को पैदा करने का ही काम करती है। इससे सहिष्णुता की भावना के खत्म होने का खतरा बढ़ता है। अत देश के ऐसे सम्मानित लोगों को इस तरह की बयानबाजी पर विराम लगाना चाहिए। देश और समाज उनसे उनके व्यवहार और विचारों में परिपक्वता की उम्मीद करता है।

बड़ा दुख होता है कि ऐसे दुख और संताप बढ़ाने वाले बयानों को भी हमारा टीवी मीडिया पूरे दिन टीवी चैनल पर प्रसारित करता है। और साथ ही कुछ चैनल ऐसे विषयों को एक गंभीर मुद्दा बनाने से नहीं चूकते, जोकि गलत है।

ऐसे प्रसारण लोगों को जागरूक करने की बजाय उन्माद और कट्टरता को बढ़ावा ही देते हैं। छोटी-छोटी बातों और अफवाहों पर जाति और धर्म संप्रदाय विशेष के अनुयायी सड़कों पर लाठी, पत्थर और हथियार लेकर निकल पड़ते हैं। ऐसा ही कुछ बंगाल के मालदा में भी हुआ।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ऐसी उग्रता तथा हिंसात्मक अभिव्यक्ति समाज और देश के लिए खतरे की घंटी है। लोग अपने ही भाई बधुंओं के विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी सहन नहीं कर पा रहे हैं। एक दूसरे पर अमर्यादित और अभद्र भाषा की कीचड़ उछालना शुरू कर देते हैं। यह स्वस्थ समाज के लिए बहुत ही गंभीर विषय है।

यदि इसके संभावित कारणों पर गौर करें कि ऐसा क्यों हो रहा है। तो कुछ बातें समझ में आती हैं। लोगों में राष्टीयता की भावना शून्य हो गई है। वे जाति, प्रांत और संप्रदाय में बंट गए हंै। लोग हिन्दु, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, वैष्णव, सिया-सुन्नी इत्यादि में बंट गए हैं। यहां पर संप्रदाय मुख्य हो गए हैं और राष्टीयता गौण हो गई है। ये कौन कर रहा है? क्यों कर रहा है? मैं यहां पर किसी समुदाय या व्यक्ति विशेष का नाम नहीं लेना चाहता हूं। लेकिन ऐसे लोग अपने व्यक्तिगत और राजनीतिक फायदों के लिए देश की जनता की धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहें हैं। एक तरह से ये लोग मानवता के हत्यारे हैं। मनुष्य की धार्मिक भावनाओं को भड़का कर खूनी खेल खेला जा रहा है। ये लोग देश को आर्थिक और सामाजिक आघात पहंुचा रहे हैं।

मैं इन लोगों के बहकावे में आकर इंसान को इंसान ना समझने वाले मनुष्यों से जानना चाहता हूं कि जब आपका कोई भाई बंधु दूसरे देश में जाता है और उससे पूछा जाता है कि आप किस देश के नागरिक हैं, तो वह बताता है कि मैं हिन्दुस्तान का नागरिक हूं। तो उस वक्त उसे वहां पर हिन्दुस्तानी कहा जाता है। तो फिर यहां संप्रदाय प्रधान कैसे हो गए? धर्म सिर्फ इंसान की ईश्वर में आस्था का प्रतीक है। संप्रदाय इंसान की पहचान नहीं हो सकता, इंसान की पहचान उसके व्यवहार और चरित्र से होती है। मनुष्य के इस पतन के लिए देश की राजनीति में कुछ स्वार्थी लोग जिम्मेदार हैं। जो राजनीति करने के बजाय मानवता के हत्यारे बने हुए हैं। अपनी राजनीतिक पिपासा के लिए किसी भी हद तक गिरने के लिए तैयार हैं क्योंकि वे जानते हैं भारत एक लोकतांत्रिक देश है और इन्हें राजनीति में बने रहने के लिए जन समर्थन आवश्यक है। इसलिए इन लोगों ने मनुष्य को संप्रदाय के आधार पर बांटना शुरू कर दिया। जिसके परिणाम दंगों और हत्याओं के रूप में सामने आ रहे हैं। मुझे तो लगता है इस तरह के लोगों को संसद में पहुंचने का अधिकार ही नहीं चाहिए। संसद में दिखने वाले चेहरों को पहले प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। जिससे वह व्यक्तिगत स्वार्थ से उपर उठ कर देश हित में सोचें।

अब सवाल यह उठता है कि ऐसे हालातों और असहिष्णुता को पनपने से कैसे रोका जाए? कैसे संप्रदाय से उपर उठकर आपसी सौहार्द और भाई चारे के साथ साथ राष्टीयता की भावना का विकास किया जाए? जिससे प्राणियों में सदभावना हो। इसके लिए मनुष्य को इन जाति, संप्रदाय और प्रांतवाद के छोटे-छोटे समूहों में वर्गीकृत होना छोड़ कर इंसान ही बने रहने का प्रयास करना होगा। जो मानव समाज के लिए बेहतर है।

मैं मानव समाज के साथ-साथ जनता द्वारा चुने गए जन प्रतिनिधियों से भी अनुरोध करता हूं कि वे सिर्फ राजनीति करें। मनुष्य की धार्मिक भावनाओं की रक्षा करें। हमारे संविधान के मुताबिक धर्म निरपेक्षता का अर्थ है कि सभी देशवासी अपनी धार्मिक भावनाओं के अनुसार कहीं भी पूजा पाठ कर सकते हैं और दूसरे धर्म का आदर करें। सरकार से भी अपेक्षित है कि वह राजनीति धर्म का पालन करे। जिससे प्राणियों में सद्भावना हो। धर्म निरपेक्ष राज्य का दायित्व है कि वह धर्म की चिंता करे। मानवीय गुणों के विकास का जो धर्म है उसकी चिंता करे। जिस धर्म का पक्ष केवल नैतिक और चारित्रिक है वही राज्य को मान्य होना चाहिए। इसका तात्पर्य है कि वैदिक, जैन, बौद्ध, ईसाई और इस्लाम आदि राज्य के धर्म नहीं हो सकते।