"हमारी भावनाएं दोयम दर्जे की हो गई हैं। हमारा प्रेम बनावटी है। हमारी मान्यताएं झूठी हैं। हमारी मौलिकता वैध है सिर्फ कृत्रिम कला के जरिए। एक वोट तक, एक आदमी महज एक आंकड़ा बन गया है।"
ये है रोहित वेमुला के लिखे सुसाइड नोट का कुछ अंश। रोहित न कहते-कहते बहुत कुछ कह गया। रोहित ज़िंदा रहते हुए जो ख़त में लिख गया शायद मरने के बाद वह सच हो रहा है। रोहित की आत्महत्या ने एक नया मोड़ ले लिया है। उसकी जाति को लेकर सवाल उठने लगा है, वह किस जाति का था? दलित था भी या नहीं? अगर दलित था तो एडमिशन दलित कोटे से क्यों नहीं लिया? रोहित की मौत के बाद दलित को लेकर सब गंभीर दिखाई दे रहे हैं। "गंभीर" आप समझ गए होंगे मैं क्या कह रहा हूं? ऐसे व्यवहार किया जा रहा है कि जैसे "दलित" शब्द कहीं ऊपर से टपक गया है और जबरन हमारे ऊपर थोप दिया गया है। लेकिन हक़ीक़त कुछ और है।
समाज के इस घड़ियाली आंसू के पीछे कहीं न कहीं घटिया मानसिकता छिपी हुई है। यह वही समाज है जो दलित को अपने समाज का हिस्सा नहीं मानता है। दलित के लिए आंसू तो बहाते हैं, लेकिन उसे भी रोने के लिए मजबूर कर देते हैं। हमारे राजनेता दलित के दर्द को समझते तो हैं लेकिन इस समझ और नासमझी के बीच एक सोची-समझी वोट बैंक की राजनीति छिपी हुई है।
रोहित ने अपने ख़त में यही लिखा है कि उसका जन्म एक घातक हादसा था, वह अपने बचपन के अकेलपन से कभी बाहर नहीं निकल सका। अपने छोटेपन से निकल नहीं सका। इसका एहसास तो इसी समाज ने ही दिया है? अगर यह एहसास नहीं होता तो शायद रोहित आज जिन्दा होता।
रोहित क़ी मौत के बाद राजनेताओं को एक मौका मिल गया। हमेशा क़ी तरह एक दूसरे के ऊपर आरोप-प्रत्यारोप के बीच एक घृणा की राजनीति सामने आ रही है। रोहित ने तो अपने ख़त में यही सब लिखा है, कैसे हम सब बनावटी बन गए हैं, कैसे हमारी भावनाएं दोयम दर्जे की हो गई हैं। वोट के लिए क्या-क्या नहीं करना चाहते हैं। रोहित के नाम पर कैसे राजनेता एक दूसरे पर हमला कर रहे हैं। एक तरह तो प्रधानमंत्री भी रोहित की आत्महत्या लेकर काफी चिंतित नज़र आते हैं तो दूसरी तरफ स्मृति ईरानी गलत तथ्य पेश करते हुए अपना पल्ला झाड़ लेती हैं।
अरविंद केजरीवाल हैदराबाद तो पहुंच जाते हैं लेकिन वहां भी उन्हें नरेंद्र मोदी ही दिखाई देते हैं। बोलते-बोलते नरेंद्र मोदी पर हमला कर बैठते हैं। दिल्ली की राजनीति को हैदराबाद तक पहुंचा देते हैं।
जरा सोचिए उन राजनेताओं के बारे में जो अपने आपको दलित समाज का ठेकेदार मानते हैं। चुनाव के दौरान अपने समाज के सामने एक ऐसे रूप पेश होते हैं जैसे समाज उन के लिए नहीं बल्कि वह दलित समाज के लिए बने हैं। लेकिन कितने दलित नेता हैं जो हैदराबाद यूनिवर्सिटी पहुंचे हैं। ज्यादातर वही नेता पहुंचे होंगे जो बीजेपी के विरोधी नेता हैं।
लोकसभा में बीजेपी के कई दलित सांसद हैं। क्या आपने देखा है इन सांसदों को हैदराबाद पहुंचते हुए या खुलकर इस मुद्दे पर बात करते हुए। कुछ दिन पहले इस घटना को लेकर मैं बीजेपी के कुछ सांसदों से बात कर रहा था, इस मुद्दे पर उनकी राय लेने की कोशिश कर रहा था। ज्यादातर सांसद रोहित की आत्महत्या से परेशान तो थे, लेकिन खुलकर बात करने के लिए तैयार नहीं थे।
कांग्रेस भी राजनीति करने में पीछे नहीं है। कांग्रेस ऐसा व्यवहार कर रही है कि जैसे कांग्रेस के शासनकाल में कभी दलितों के ऊपर अत्याचार नहीं हुआ। हरियाणा के भगाना गांव के कुछ दलित लोगों के ऊपर वहां की ऊंची जाति के लोगों द्वारा अत्याचार करने की बात सामने आई थी। कई साल तक ये लोग जंतर-मंतर पर धरणा देते रहे, लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। उस वक़्त हरियाणा में कांग्रेस की सरकार थी और केंद्र में कांग्रेस सत्ता में भी थी। लेकिन सत्ता और सरकार दोनों ही चुप थी।
रोहित की आत्महत्या के बाद छात्र राजनीति का असली चेहरा भी सामने आ रहा है। मुम्बई से लेकर दिल्ली तक छात्र संगठन प्रोटेस्ट कर रहे हैं। लेकिन सच यह है कि छात्र संगठन रोहित के नाम पर अपनी राजनीति को चमकाने में लगे हुए हैं। रोहित के मुद्दे को लेकर ABVP के दफ्तर पर हमला हो जाता है, इस हमले को राजनैतिक रूप भी दिया जाता है। लेकिन इस हमले का ज़िम्मेदारी कोई नहीं लेता है।
दिल्ली यूनिवर्सिटी के सामने बैठे छात्रनेता अपने हाथ में रोहित की तस्वीर तो लेकर बैठे हैं लेकिन इस तस्वीर के नीचे अपने संगठन का नाम लिखना नहीं भूले। प्रोटेस्ट के दौरान एक-दूसरे के खिलाफ नारेबाजी हो रही है। जिंदाबाद और मुर्दाबाद के नारे दूर-दूर तक सुनाई दे रहे हैं। इस छात्र राजनीति की बात तो रोहित ने ही की थी। कैसे छात्र-राजनीति यूनिवर्सिटी के माहौल को खराब कर रही है। जो छात्र नेता जब रोहित जिन्दा था उसके साथ खड़े नहीं हुए आज मरने के बाद उसके नाम पर राजनीति कर रहे हैं।
रोहित इस दुनिया को समझ नहीं पाया, प्यार को समझ नहीं पाया। लेकिन क्या हम सब रोहित को समझ पाए उसके ख़त में लिखे हुए दर्द को समझ पाए। मुझे नहीं लगता अगर समझ गए होते तो नासमझ की तरह बात करते, रोहित को लेकर कम से कम राजनीति नहीं
ये है रोहित वेमुला के लिखे सुसाइड नोट का कुछ अंश। रोहित न कहते-कहते बहुत कुछ कह गया। रोहित ज़िंदा रहते हुए जो ख़त में लिख गया शायद मरने के बाद वह सच हो रहा है। रोहित की आत्महत्या ने एक नया मोड़ ले लिया है। उसकी जाति को लेकर सवाल उठने लगा है, वह किस जाति का था? दलित था भी या नहीं? अगर दलित था तो एडमिशन दलित कोटे से क्यों नहीं लिया? रोहित की मौत के बाद दलित को लेकर सब गंभीर दिखाई दे रहे हैं। "गंभीर" आप समझ गए होंगे मैं क्या कह रहा हूं? ऐसे व्यवहार किया जा रहा है कि जैसे "दलित" शब्द कहीं ऊपर से टपक गया है और जबरन हमारे ऊपर थोप दिया गया है। लेकिन हक़ीक़त कुछ और है।
समाज के इस घड़ियाली आंसू के पीछे कहीं न कहीं घटिया मानसिकता छिपी हुई है। यह वही समाज है जो दलित को अपने समाज का हिस्सा नहीं मानता है। दलित के लिए आंसू तो बहाते हैं, लेकिन उसे भी रोने के लिए मजबूर कर देते हैं। हमारे राजनेता दलित के दर्द को समझते तो हैं लेकिन इस समझ और नासमझी के बीच एक सोची-समझी वोट बैंक की राजनीति छिपी हुई है।
रोहित ने अपने ख़त में यही लिखा है कि उसका जन्म एक घातक हादसा था, वह अपने बचपन के अकेलपन से कभी बाहर नहीं निकल सका। अपने छोटेपन से निकल नहीं सका। इसका एहसास तो इसी समाज ने ही दिया है? अगर यह एहसास नहीं होता तो शायद रोहित आज जिन्दा होता।
रोहित क़ी मौत के बाद राजनेताओं को एक मौका मिल गया। हमेशा क़ी तरह एक दूसरे के ऊपर आरोप-प्रत्यारोप के बीच एक घृणा की राजनीति सामने आ रही है। रोहित ने तो अपने ख़त में यही सब लिखा है, कैसे हम सब बनावटी बन गए हैं, कैसे हमारी भावनाएं दोयम दर्जे की हो गई हैं। वोट के लिए क्या-क्या नहीं करना चाहते हैं। रोहित के नाम पर कैसे राजनेता एक दूसरे पर हमला कर रहे हैं। एक तरह तो प्रधानमंत्री भी रोहित की आत्महत्या लेकर काफी चिंतित नज़र आते हैं तो दूसरी तरफ स्मृति ईरानी गलत तथ्य पेश करते हुए अपना पल्ला झाड़ लेती हैं।
अरविंद केजरीवाल हैदराबाद तो पहुंच जाते हैं लेकिन वहां भी उन्हें नरेंद्र मोदी ही दिखाई देते हैं। बोलते-बोलते नरेंद्र मोदी पर हमला कर बैठते हैं। दिल्ली की राजनीति को हैदराबाद तक पहुंचा देते हैं।
जरा सोचिए उन राजनेताओं के बारे में जो अपने आपको दलित समाज का ठेकेदार मानते हैं। चुनाव के दौरान अपने समाज के सामने एक ऐसे रूप पेश होते हैं जैसे समाज उन के लिए नहीं बल्कि वह दलित समाज के लिए बने हैं। लेकिन कितने दलित नेता हैं जो हैदराबाद यूनिवर्सिटी पहुंचे हैं। ज्यादातर वही नेता पहुंचे होंगे जो बीजेपी के विरोधी नेता हैं।
लोकसभा में बीजेपी के कई दलित सांसद हैं। क्या आपने देखा है इन सांसदों को हैदराबाद पहुंचते हुए या खुलकर इस मुद्दे पर बात करते हुए। कुछ दिन पहले इस घटना को लेकर मैं बीजेपी के कुछ सांसदों से बात कर रहा था, इस मुद्दे पर उनकी राय लेने की कोशिश कर रहा था। ज्यादातर सांसद रोहित की आत्महत्या से परेशान तो थे, लेकिन खुलकर बात करने के लिए तैयार नहीं थे।
कांग्रेस भी राजनीति करने में पीछे नहीं है। कांग्रेस ऐसा व्यवहार कर रही है कि जैसे कांग्रेस के शासनकाल में कभी दलितों के ऊपर अत्याचार नहीं हुआ। हरियाणा के भगाना गांव के कुछ दलित लोगों के ऊपर वहां की ऊंची जाति के लोगों द्वारा अत्याचार करने की बात सामने आई थी। कई साल तक ये लोग जंतर-मंतर पर धरणा देते रहे, लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। उस वक़्त हरियाणा में कांग्रेस की सरकार थी और केंद्र में कांग्रेस सत्ता में भी थी। लेकिन सत्ता और सरकार दोनों ही चुप थी।
रोहित की आत्महत्या के बाद छात्र राजनीति का असली चेहरा भी सामने आ रहा है। मुम्बई से लेकर दिल्ली तक छात्र संगठन प्रोटेस्ट कर रहे हैं। लेकिन सच यह है कि छात्र संगठन रोहित के नाम पर अपनी राजनीति को चमकाने में लगे हुए हैं। रोहित के मुद्दे को लेकर ABVP के दफ्तर पर हमला हो जाता है, इस हमले को राजनैतिक रूप भी दिया जाता है। लेकिन इस हमले का ज़िम्मेदारी कोई नहीं लेता है।
दिल्ली यूनिवर्सिटी के सामने बैठे छात्रनेता अपने हाथ में रोहित की तस्वीर तो लेकर बैठे हैं लेकिन इस तस्वीर के नीचे अपने संगठन का नाम लिखना नहीं भूले। प्रोटेस्ट के दौरान एक-दूसरे के खिलाफ नारेबाजी हो रही है। जिंदाबाद और मुर्दाबाद के नारे दूर-दूर तक सुनाई दे रहे हैं। इस छात्र राजनीति की बात तो रोहित ने ही की थी। कैसे छात्र-राजनीति यूनिवर्सिटी के माहौल को खराब कर रही है। जो छात्र नेता जब रोहित जिन्दा था उसके साथ खड़े नहीं हुए आज मरने के बाद उसके नाम पर राजनीति कर रहे हैं।
रोहित इस दुनिया को समझ नहीं पाया, प्यार को समझ नहीं पाया। लेकिन क्या हम सब रोहित को समझ पाए उसके ख़त में लिखे हुए दर्द को समझ पाए। मुझे नहीं लगता अगर समझ गए होते तो नासमझ की तरह बात करते, रोहित को लेकर कम से कम राजनीति नहीं